SATYANARAYAN BHAGWAN KI KAHANI IN HINDI (सत्यनारायण कौन से भगवान हैं?)

By Shweta Soni

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हेलो दोस्तों,

मेरा नाम श्वेता है और में हमारे वेबसाइट के मदत से आप के लिए एक नयी श्री सत्यनारायण भगवान की कहानी  लेके आई हु और ऐसी अच्छी अच्छी कहानिया लेके आते रहती हु। वैसे आज मै श्री सत्यनारायण भगवान की कहानी और सत्यनारायण कौन से भगवान हैं? की कहानी लेके आई हु कहानी को पढ़े आप सब को बहुत आनंद आएगा |

श्री सत्यनारायण भगवान की कहानी बहुत ही प्रसिद्ध है और यह कहानी हिंदी भाषा में निम्नलिखित है:

एक समय की बात है, एक गरीब व्यक्ति ने अपने घर में श्री सत्यनारायण भगवान के उपासना के लिए एक पूजा का आयोजन किया। उन्होंने इस पूजा के लिए सभी आवश्यक वस्तुएं जैसे फल, पुष्प, धूप, दीपक आदि का आयोजन किया था। इस पूजा में बहुत से लोग आए थे।

जब पूजा का समापन हुआ तो गरीब व्यक्ति ने देखा कि एक ब्राह्मण आए हुए हैं जो बहुत ही भूखा था। वह ब्राह्मण गरीब व्यक्ति से भोजन के लिए प्रार्थना करने लगा। गरीब व्यक्ति ने ब्राह्मण को बुलाकर खाने का आयोजन किया। लेकिन उन्हें पता नहीं था कि उनके पास खाने के लिए कुछ भी नहीं है।

इस समस्या का समाधान करने के लिए गरीब व्यक्ति ने श्री सत्यनारायण भगवान की कथा कहने का फैसला किया। उन्होंने श्री सत्यनारायण भगवान की कथा बताई जो ब्राह्मण ने सुनी। ब्राह्मण ने कथा सुनते सुनते बहुत आनंद लिया और उन्होंने ब्रह्माजी को धन्यवाद दिया कि उन्होंने उन्हें भोजन कराने का अवसर दिया।

इस घटना के बाद, गरीब व्यक्ति को बहुत सम्मान मिला और उन्होंने श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा को लेकर अपना ध्यान बढ़ाया। उन्होंने नियमित रूप से श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा की और उन्हें उनके सभी मनोकामनाएं पूर्ण हुईं।

यह कहानी श्री सत्यनारायण भगवान के भक्तों को यह बताती है कि उन्हें किस तरह से संसार में जीवन जीना चाहिए और उन्हें कैसे श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा करनी चाहिए। यह कथा धर्म, ईमानदारी और सदभाव को समझाती है।

श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा करने से अनेक संकटों से मुक्ति मिलती है और उसके उपासना से धन, समृद्धि, शांति और सुख की प्राप्ति होती है।

श्री सत्यनारायण भगवान की कथा सुनने से भी बहुत फल प्राप्त होता है। इसे सभी धर्मों के लोग सुन सकते हैं।

इस कथा में श्री सत्यनारायण भगवान के भक्त को दूसरों के लिए नेक काम करने की सलाह दी जाती है। श्रद्धा और उपकार भाव के साथ जीवन जीने से हमें सुख, शांति और अनंत आनंद मिलता है।

यह कथा हमें यह भी सिखाती है कि जीवन में हमेशा सच्चाई का साथ देना चाहिए और दुखों के समय भी ईश्वर में विश्वास करना चाहिए। इस प्रकार, श्री सत्यनारायण भगवान की कथा हमें सद्गुणों की महत्ता और श्रद्धा की आवश्यकता को समझाती है।

यह कथा हमें यह भी बताती है कि दान, उपकार और सेवा का महत्त्व हमारे जीवन में क्या होता है। श्री सत्यनारायण भगवान धर्म, ईमानदारी और सद्भाव के प्रतीक हैं।

श्री सत्यनारायण भगवान की कथा का पाठ करने से हमें धार्मिक ज्ञान और अनुष्ठान की शक्ति मिलती है। इस प्रकार, श्री सत्यनारायण भगवान की कथा हमारे जीवन के लिए एक महत्त्वपूर्ण धर्म शिक्षा है जो हमें जीवन के संघर्षों से निपटने के लिए शक्ति देती है।

इसी तरह, श्री सत्यनारायण भगवान की कथा हमारे दिल में अनंत श्रद्धा भर देती है और हमें ईश्वर के प्रति दृढ़ता से बंधन में बांधती है। इसका पाठ करने से हमें जीवन में सुख, शांति और समृद्धि की प्राप्ति होती है।

इसीलिए, श्री सत्यनारायण भगवान की कथा का पाठ हमें जीवन में सद्भाव, श्रद्धा और समरसता की ओर ले जाता है।

SATYANARAYAN BHAGWAN KI KAHANI IN HINDI
SATYANARAYAN BHAGWAN KI KAHANI IN HINDI

श्री सत्यनारायण भगवान की कथा

हमारे हिन्दू धर्म में बहुत महत्वपूर्ण है। यह कथा विशेष रूप से उन लोगों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होती है जो शुभ कार्यों में अधिक रूचि रखते हैं। यह कथा सत्यनारायण भगवान के जीवन के महत्वपूर्ण घटनाओं पर आधारित है।

एक बार एक ब्राह्मण ने अपने सभी अपराधों को शुद्ध करने के लिए श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा की। उसने भगवान की कथा का पाठ किया और उन्हें नैवेद्य चढ़ाया। इससे उसके समस्त पाप नष्ट हो गए और उसे धन, सुख और समृद्धि की प्राप्ति हुई।

श्री सत्यनारायण भगवान की कथा में बताया गया है कि एक बार दो मित्रों में समझौता हुआ कि जिस दिन कोई एक भी व्यक्ति सत्यनारायण भगवान की पूजा करेगा, उस दिन वे दोनों उस व्यक्ति को जरूर जाने देंगे। एक दिन एक संतानी व्यक्ति ने सत्यनारायण भगवान की पूजा की और अपने मित्रों को न्योता दिया।

उनके मित्रों ने उन्हे का मजाक उड़ाया, लेकिन उस संतानी व्यक्ति ने उन्हें धीरज से समझाया कि सत्यनारायण भगवान की पूजा करना बहुत महत्वपूर्ण होता है। उस दिन उनके मित्रों ने भी सत्यनारायण भगवान की पूजा की और उन्हें धन, समृद्धि और सुख की प्राप्ति हुई।

श्री सत्यनारायण भगवान की कथा में बताया गया है कि एक बार एक धनवान व्यक्ति को उसके शादी के समय समस्त धन लुट लिया गया। उसने बहुत दुःख झेला और सत्यनारायण भगवान की पूजा करने लगा। उसने निरंतर भगवान की पूजा की और उन्हें समर्पित हो गया। सत्यनारायण भगवान ने उसे अपनी कृपा से धन की वापसी कर दी और उसे फिर से समृद्ध कर दिया।

श्री सत्यनारायण भगवान की कथा के अन्य अनेक महत्वपूर्ण घटनाओं को वर्णित किया गया है। इस कथा के समापन में सत्यनारायण भगवान की आरती की जाती है और फिर प्रसाद बांटा जाता है। इस कथा को सुनने वाले लोगों को सत्य, उपयोगिता और भक्ति की प्रशाला होती है।

श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा करने से लोगों की मनोकामनाएं पूरी होती हैं और उन्हें सुख, समृद्धि और सफलता की प्राप्ति होती है। इसलिए लोग इस पूजा को निरंतर करते हैं और अपने जीवन में खुशहाली की प्राप्ति करते हैं।

श्री सत्यनारायण भगवान की कथा वास्तव में एक अत्यंत महत्वपूर्ण कथा है जो लोगों को धार्मिक एवं नैतिक मूल्यों को समझाती है। इसके अलावा इस पूजा को करने से लोगों के जीवन में आने वाली बाधाएं दूर होती हैं और उन्हें धन, समृद्धि, सुख और सफलता की प्राप्ति होती है।

यह कथा विभिन्न भाषाओं में उपलब्ध है जैसे कि हिंदी, गुजराती, मराठी, तेलुगु आदि। इसके अलावा, इस कथा को सुनने के लिए लोग समाज में आमंत्रित होते हैं और इस पूजा को निरंतर करते हैं।

इस पूजा के दौरान लोग अपने विशेष इच्छाओं को पूरा करने के लिए प्रार्थना करते हैं। इस पूजा को शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा या एकादशी के दिन किया जाता है।

श्री सत्यनारायण भगवान की कथा के अनुसार, एक समय बहुत पुराने दिनों की बात है। एक बहुत ही निष्कपट व्यापारी था जो अपने व्यापार से धन कमाता था। उसे धन बहुत महत्वपूर्ण था और वह अपने धन को किसी भी तरह संचय करने का प्रयास करता रहता था।

एक दिन वह अपने व्यापार से आने के लिए घर से दूर निकला था। रास्ते में उसे अपने जीवन का सबसे बड़ा गम्भीर संकट संभालना पड़ा। उसे बहुत ज्यादा भूख लगी थी और वह खाने की तलाश में था। उस वक्त उसे एक संत मिला जो श्री सत्यनारायण भगवान के भक्त थे।

संत ने उस व्यापारी को सत्यनारायण भगवान के बारे में बताया और उसे उनकी कथा सुनाई। उसने अन्न और दान करने का वचन दिया तब संत ने उसे श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा करने को कहां, इस व्यापारी ने संत के वचनों पर अमल किया और उसने श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा शुरू की। वह पूजा बहुत ही विधिवत तरीके से करता रहा और धीरे-धीरे उसकी समस्याएं कम होने लगीं।

कुछ समय बाद उस व्यापारी के घर में बहुत धन का आगमन हुआ और उसने श्री सत्यनारायण भगवान के लिए एक विशेष पूजा की। वह अन्न वितरित करने के साथ-साथ बहुत से लोगों को धन भी दान में दिया। उसके बाद से उसने हर साल श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा की और अन्न वितरित करने लगा।

श्री सत्यनारायण भगवान की कथा यह सिद्ध करती है कि जब भी कोई अपने जीवन में संकट से ग्रस्त होता है, तब उसे श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा करनी चाहिए। इससे उसके संकट में कमी आती है और वह धन, समृद्धि और सुख-शांति की प्राप्ति के लिए आगे बढ़ता है।

इस पूजा को शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा या एकादशी के दिन किया जाता है। पूजा के लिए श्री सत्यनारायण भगवान के मंदपर में एक छोटा सा मंदिर बनाया जाता है जिसमें श्री सत्यनारायण भगवान की मूर्ति रखी जाती है। पूजा में अन्न, पानी, फल, फूल और दीपक दिए जाते हैं।

पूजा की शुरुआत गणेश पूजा से होती है और फिर सत्यनारायण भगवान की पूजा की जाती है। पूजा के बाद व्रत के सभी लोग अन्न का प्रसाद खाते हैं और फिर यह प्रसाद अपने घर ले जाते हैं।

इस तरह श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा और उनकी कथा का पालन करने से भक्त को सुख, समृद्धि, सफलता और शांति की प्राप्ति होती है। इस पूजा को करने से अपने जीवन के सभी क्षेत्रों में उन्नति मिलती है और भक्त को अपने मन की शांति भी मिलती है।

इस तरह श्री सत्यनारायण भगवान की कथा और पूजा का महत्व बहुत अधिक होता है। यह पूजा हिंदू धर्म के अनुयायियों के बीच बहुत प्रचलित है और इसे हर महीने की पूर्णिमा को विशेष रूप से मनाया जाता है।

श्री सत्यनारायण भगवान की कथा के अलावा, भगवान के बारे में और भी कई रोचक कथाएं हैं जो हमारे जीवन में उन्नति करती हैं। इसलिए हमें हमेशा अपने धर्म के आदर्शों का पालन करना चाहिए और श्रद्धा भाव से इनका पालन करना चाहिए।

आशा करता हूँ कि यह समझ में आया होगा कि श्री सत्यनारायण भगवान की कथा का महत्व क्या होता है और इसके बारे में अधिक जानने के लिए आप संबंधित पुस्तकों और समय-समय पर आयोजित की जाने वाली कथा वाचक या पंडितों से बातचीत कर सकते हैं।

धार्मिक विश्वास एक व्यक्ति के जीवन में बहुत महत्वपूर्ण होता है। यह हमें सही मार्ग दर्शन करता है और हमारे जीवन में आने वाली मुश्किलों से निपटने में मदद करता है। श्री सत्यनारायण भगवान की कथा एक ऐसा धार्मिक अनुष्ठान है जो हमारे जीवन में सुख और समृद्धि का स्रोत है। इसे सुनने से हमारे अध्यात्मिक और आर्थिक दोनों प्रकार से फायदे होते हैं।

श्री सत्यनारायण भगवान की कथा को सम्पूर्ण करने के बाद, प्रसाद वितरण किया जाता है। यह प्रसाद धर्मिक और आर्थिक दोनों प्रकार से फायदेमंद होता है।

श्री सत्यनारायण भगवान की कथा आदर्श परिवारिक अनुष्ठान है। इसे पढ़ने और सुनने से परिवार के सदस्यों के बीच अच्छी बातचीत होती है और उन्हें साथ रहने के लिए आर्थिक सहायता भी मिलती है।

इसलिए, श्री सत्यनारायण भगवान की कथा को समझने और इसे अपने जीवन में उतारने से हमारे जीवन में सुख, समृद्धि और आनंद का स्रोत बनता है।

श्री सत्यनारायण भगवान की कथा अनेक लोगों को जोड़ती है। इसके अलावा, इसे समझने से हमारा मन शांत होता है और हमें एक अच्छे व्यक्ति बनने के लिए प्रेरित करता है। यह कथा हमें अपने जीवन को सही दिशा में ले जाने के लिए उपयोगी नेतृत्व प्रदान करती है।

श्री सत्यनारायण भगवान की कथा हमारे जीवन में सुख, शांति और समृद्धि का स्रोत होती है। इसके अलावा, इसे समझने से हमें धार्मिक अनुष्ठानों की बढ़ती हुई अहमियत का एहसास होता है। श्री सत्यनारायण भगवान की कथा हमें अपने जीवन में आने वाली मुश्किलों से निपटने की कला सिखाती है और हमें अपने कर्तव्यों को निभाने के लिए प्रेरित करती है।

इसलिए, श्री सत्यनारायण भगवान की कथा हमारे जीवन में एक अहम् रोल निभाती है। इसे अपने जीवन में उतारने से हमारा जीवन सुखी, समृद्ध और आनंदमय होता है।

इस कथा में श्री सत्यनारायण भगवान और उनके श्रद्धालु भक्त की कहानी होती है। यह कथा शुरू होती है एक सामान्य व्यक्ति के घर में जहां उसने श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा की थी। वह उन्हें विनम्रता से भक्ति और पूजा से सम्बंधित विस्तार से बताता है।

उस घर में एक अधिकारी रहता था, जो धन कमाने के लिए कठिन मेहनत करता था। उसने यह सुनकर कि श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा से उसकी समस्याओं का समाधान हो सकता है, वह भी पूजा में शामिल होता है।

उसके बाद, एक गरीब किसान जो की लालसा से जीता था, उसने भी श्री सत्यनारायण भगवान की कथा सुनी और उनकी पूजा की। श्री सत्यनारायण भगवान ने उसकी समस्याओं को भी दूर कर दिया।

इस कथा में, श्री सत्यनारायण भगवान की कथा सुनने वालों के लिए उन्हें अपने जीवन को सही दिशा में ले जाने का अवसर होता है। उन्हें एक अच्छे व्यक्ति बनने के लिए प्रेरित करती है और उन्हें सुख, शांति और समृद इस कथा में, श्री सत्यनारायण भगवान की कथा सुनने वालों के लिए उन्हें अपने जीवन को सही दिशा में ले जाने का अवसर होता है। उन्हें एक अच्छे व्यक्ति बनने के लिए प्रेरित करती है और उन्हें सुख, शांति और समृद्धि की प्राप्ति के लिए उनकी सहायता करती है।

इस कथा का अंत ऐसे होता है कि सभी लोग अपने विभिन्न समस्याओं से मुक्त हो जाते हैं और श्री सत्यनारायण भगवान के आशीर्वाद से सभी का जीवन समृद्ध, सुखी और समृद्ध हो जाता है।यह कथा धार्मिक उद्देश्य के साथ जीवन के मूल्यों और विश्वास के महत्व को भी समझाती है। यह एक सरल और सुंदर कथा है जो हमें अपने जीवन में धार्मिकता, समरसता और समझदारी के महत्व को याद दिलाती है।

सत्यनारायण कौन से भगवान हैं?

श्री सत्यनारायण भगवान हिंदू धर्म में एक प्रसिद्ध भगवान हैं। वे विष्णु भगवान के एक अवतार माने जाते हैं और उन्हें समस्त वर्णों और जातियों के लोग भक्ति करते हैं। श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा विशेष रूप से शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा और कर्तिक मास की पूर्णिमा को की जाती है। श्री सत्यनारायण भगवान के नाम में ‘सत्य’ का शब्द आता है, जो सत्यता का प्रतीक होता है। इसलिए, उनके नाम के अर्थ होते हैं ‘सत्य के नारायण’।

श्री सत्यनारायण भगवान का उल्लेख प्राचीन हिंदू पुराणों में मिलता है। उनकी कहानी में बताया जाता है कि एक बार एक व्यापारी ने अपनी धन-समृद्धि की प्राप्ति के लिए श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा की थी। उन्हें धन लाभ होते देखकर वह सभी लोगों को श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा करने की सलाह देता है। उसके बाद से, श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा लोगों के बीच बहुत लोकप्रिय हो गई है।

श्री सत्यनारायण भगवान की कथा के अनुसार, उनके भक्तों को अनेक फायदे होते हैं। उनकी पूजा से मन को शांति और तन को स्वस्थ रखने के साथ-साथ विविध प्रकार के धन और संतान की प्राप्ति होती है।

श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा का विधान विस्तृत रूप से वेदों और पुराणों में बताया गया है। इसके अनुसार, श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा के लिए एक विशेष कथा सुनाई जाती है जो पूजा के अंत में पढ़ी जाती है।

कथा

प्रथम अध्याय

सत्यनारायण व्रत कथा का पूरा सन्दर्भ यह है कि पुराकालमें शौनकादिऋषि नैमिषारण्य स्थित महर्षि सूत के आश्रम पर पहुँचे। ऋषिगण महर्षि सूत से प्रश्न करते हैं कि लौकिक कष्टमुक्ति, सांसारिक सुख समृद्धि एवं पारलौकिक लक्ष्य की सिद्धि के लिए सरल उपाय क्या है? महर्षि सूत शौनकादिऋषियों को बताते हैं कि ऐसा ही प्रश्न नारद जी ने भगवान विष्णु से किया था। भगवान विष्णु ने नारद जी को बताया कि लौकिक क्लेशमुक्ति, सांसारिक सुखसमृद्धि एवं पारलौकिक लक्ष्य सिद्धि के लिए एक ही राजमार्ग है, वह है सत्यनारायण व्रत। सत्यनारायण का अर्थ है सत्याचरण, सत्याग्रह, सत्यनिष्ठा। संसार में सुखसमृद्धि की प्राप्ति सत्याचरणद्वारा ही संभव है। सत्य ही ईश्वर है। सत्याचरण का अर्थ है ईश्वराराधन, भगवत्पूजा।

कथा का प्रारम्भ सूत जी द्वारा कथा सुनाने से होता है। नारद जी भगवान श्रीविष्णु के पास जाकर उनकी स्तुति करते हैं। स्तुति सुनने के अनन्तर भगवान श्रीविष्णु जी ने नारद जी से कहा- महाभाग! आप किस प्रयोजन से यहाँ आये हैं, आपके मन में क्या है? कहिये, वह सब कुछ मैं आपको बताउँगा।

नारद जी बोले – भगवन! मृत्युलोक में अपने पापकर्मों के द्वारा विभिन्न योनियों में उत्पन्न सभी लोग बहुत प्रकार के क्लेशों से दुखी हो रहे हैं। हे नाथ! किस लघु उपाय से उनके कष्टों का निवारण हो सकेगा, यदि आपकी मेरे ऊपर कृपा हो, तो वह सब मैं सुनना चाहता हूँ। उसे बतायें।

श्री भगवान ने कहा – हे वत्स! संसार के ऊपर अनुग्रह करने की इच्छा से आपने बहुत अच्छी बात पूछी है। जिस व्रत के करने से प्राणी मोह से मुक्त हो जाता है, उसे आपको बताता हूँ, सुनें। हे वत्स! स्वर्ग और मृत्युलोक में दुर्लभ भगवान सत्यनारायण का एक महान पुण्यप्रद व्रत है। आपके स्नेह के कारण इस समय मैं उसे कह रहा हूँ। अच्छी प्रकार विधि-विधान से भगवान सत्यनारायण व्रत करके मनुष्य शीघ्र ही सुख प्राप्त कर परलोक में मोक्ष प्राप्त कर सकता है।

भगवान की ऐसी वाणी सनुकर नारद मुनि ने कहा -प्रभो इस व्रत को करने का फल क्या है? इसका विधान क्या है? इस व्रत को किसने किया और इसे कब करना चाहिए? यह सब विस्तारपूर्वक बतलाइये।

श्री भगवान ने कहा – यह सत्यनारायण व्रत दुख-शोक आदि का शमन करने वाला, धन-धान्य की वृद्धि करने वाला, सौभाग्य और सन्तान देने वाला तथा सर्वत्र विजय प्रदान करने वाला है। जिस-किसी भी दिन भक्ति और श्रद्धा से समन्वित होकर मनुष्य ब्राह्मणों और बन्धुबान्धवों के साथ धर्म में तत्पर होकर सायंकाल भगवान सत्यनारायण की पूजा करे। नैवेद्य के रूप में उत्तम कोटि के भोजनीय पदार्थ को सवाया मात्रा में भक्तिपूर्वक अर्पित करना चाहिए। केले के फल, घी, दूध, गेहूँ का चूर्ण अथवा गेहूँ के चूर्ण के अभाव में साठी चावल का चूर्ण, शक्कर या गुड़ – यह सब भक्ष्य सामग्री सवाया मात्रा में एकत्र कर निवेदित करनी चाहिए।

बन्धु-बान्धवों के साथ श्री सत्यनारायण भगवान की कथा सुनकर दक्षिणा देनी चाहिए। तदनन्तर बन्धु-बान्धवों के साथ भोजन कराना चाहिए। भक्तिपूर्वक प्रसाद ग्रहण करके नृत्य-गीत आदि का आयोजन करना चाहिए। तदनन्तर भगवान सत्यनारायण का स्मरण करते हुए अपने घर जाना चाहिए। ऐसा करने से मनुष्यों की अभिलाषा अवश्य पूर्ण होती है। विशेष रूप से कलियुग में, पृथ्वीलोक में यह सबसे छोटा सा उपाय है।

दूसरा अध्याय

श्रीसूतजी बोले – हे द्विजों! अब मैं पुनः पूर्वकाल में जिसने इस सत्यनारायण व्रत को किया था, उसे भली भाँति विस्तारपूर्वक कहूँगा। रमणीय काशी नामक नगर में कोई अत्यन्त निर्धन ब्राह्मण रहता था। भूख और प्यास से व्याकुल होकर वह प्रतिदिन पृथ्वी पर भटकता रहता था। भगवान ने उस दुखी को देखकर वृद्ध का रूप धारण करके उस द्विज से आदरपूर्वक पूछा – हे ! प्रतिदिन अत्यन्त दुखी होकर तुम किसलिए पृथ्वपर भ्रमण करते रहते हो। हे द्विजश्रेष्ठ! यह सब बतलाओ, मैं सुनना चाहता हूं।

बोला – प्रभो! मैं अत्यन्त दरिद्र हूँ और भिक्षा के लिए ही पृथ्वी पर घूमा करता हूँ। यदि मेरी इस दरिद्रता को दूर करने का आप कोई उपाय जानते हों तो कृपापूर्वक बतलाइये।

वृद्ध बोला – हे देव! सत्यनारायण भगवान् विष्णु अभीष्ट फल को देने वाले हैं। हे विप्र! तुम उनका उत्तम व्रत करो, जिसे करने से मनुष्य सभी दुखों से मुक्त हो जाता है।

व्रत के विधान को भी यत्नपूर्वक कहकर वृद्ध रूपधारी भगवान् विष्णु वहीं पर अन्तर्धान हो गये। ‘वृद्ध ने जैसा कहा है, उस व्रत को अच्छी प्रकार से वैसे ही करूँगा’ – यह सोचते हुए उस को रात में नींद नहीं आयी।

अगले दिन प्रातःकाल उठकर ‘सत्यनारायण का व्रत करूंगा’ ऐसा संकल्प करके वह भिक्षा के लिए चल पड़ा। उस दिन भिक्षा में बहुत सा धन प्राप्त हुआ। उसी धन से उसने बन्धु-बान्धवों के साथ भगवान सत्यनारायण का व्रत किया। इस व्रत के प्रभाव से वह श्रेष्ठ सभी दुखों से मुक्त होकर समस्त सम्पत्तियों से सम्पन्न हो गया। उस दिन से लेकर प्रत्येक महीने उसने यह व्रत किया। इस प्रकार भगवान् सत्यनारायण के इस व्रत को करके वह श्रेष्ठ सभी पापों से मुक्त हो गया और उसने दुर्लभ मोक्षपद को प्राप्त किया।

हे विप्र! पृथ्वी पर जब भी कोई मनुष्य श्री सत्यनारायण का व्रत करेगा, उसी समय उसके समस्त दुख नष्ट हो जायेंगे। ! इस प्रकार भगवान नारायण ने महात्मा नारदजी से जो कुछ कहा, मैंने वह सब आप लोगों से कह दिया, आगे अब और क्या कहूं?

हे मुने! इस पृथ्वी पर उस से सुने हुए इस व्रत को किसने किया? हम वह सब सुनना चाहते हैं, उस व्रत पर हमारी श्रद्धा हो रही है।

श्री सूत जी बोले – मुनियों! पृथ्वी पर जिसने यह व्रत किया, उसे आप लोग सुनें। एक बार वह द्विजश्रेष्ठ अपनी धन-सम्पत्ति के अनुसार बन्धु-बान्धवों तथा परिवारजनों के साथ व्रत करने के लिए उद्यत हुआ। इसी बीच एक लकड़हारा वहाँ आया और लकड़ी बाहर रखकर उस ब्राह्मण के घर गया। प्यास से व्याकुल वह उस को व्रत करता हुआ देख प्रणाम करके उससे बोला – प्रभो! आप यह क्या कर रहे हैं, इसके करने से किस फल की प्राप्ति होती है, विस्तारपूर्वक मुझसे कहिये।

विप्र ने कहा – यह सत्यनारायण का व्रत है, जो सभी मनोरथों को प्रदान करने वाला है। उसी के प्रभाव से मुझे यह सब महान धन-धान्य आदि प्राप्त हुआ है। जल पीकर तथा प्रसाद ग्रहण करके वह नगर चला गया। सत्यनारायण देव के लिए मन से ऐसा सोचने लगा कि ‘आज लकड़ी बेचने से जो धन प्राप्त होगा, उसी धन से भगवान सत्यनारायण का श्रेष्ठ व्रत करूँगा।’ इस प्रकार मन से चिन्तन करता हुआ लकड़ी को मस्तक पर रख कर उस सुन्दर नगर में गया, जहाँ धन-सम्पन्न लोग रहते थे। उस दिन उसने लकड़ी का दुगुना मूल्य प्राप्त किया।

इसके बाद प्रसन्न हृदय होकर वह पके हुए केले का फल, शर्करा, घी, दूध और गेहूँ का चूर्ण सवाया मात्रा में लेकर अपने घर आया। तत्पश्चात उसने अपने बान्धवों को बुलाकर विधि-विधान से भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत किया। उस व्रत के प्रभाव से वह धन-पुत्र से सम्पन्न हो गया और इस लोक में अनेक सुखों का उपभोग कर अन्त में सत्यपुर अर्थात् बैकुण्ठलोक चला गया।

तीसरा अध्याय

श्री सूतजी बोले – श्रेष्ठ मुनियों! अब मैं पुनः आगे की कथा कहूँगा, आप लोग सुनें। प्राचीन काल में उल्कामुख नाम का एक राजा था। वह जितेन्द्रिय, सत्यवादी तथा अत्यन्त बुद्धिमान था। वह विद्वान राजा प्रतिदिन देवालय जाता और धन देकर सन्तुष्ट करता था। कमल के समान मुख वाली उसकी धर्मपत्नी शील, विनय एवं सौन्दर्य आदि गुणों से सम्पन्न तथा पतिपरायणा थी। राजा एक दिन अपनी धर्मपत्नी के साथ भद्रशीला नदी के तट पर श्रीसत्यनारायण का व्रत कर रहा था। उसी समय व्यापार के अनेक प्रकार की पुष्कल धनराशि से सम्पन्न एक साधु नाम का बनिया वहाँ आया। भद्रशीला नदी के तट पर नाव को स्थापित कर वह राजा के समीप गया और राजा को उस व्रत में दीक्षित देखकर विनयपूर्वक पूछने लगा।

साधु ने कहा – राजन्! आप भक्तियुक्त चित्त से यह क्या कर रहे हैं? कृपया वह सब बताइये, इस समय मैं सुनना चाहता हूँ।

राजा बोले – हे साधो! पुत्र आदि की प्राप्ति की कामना से अपने बन्धु-बान्धवों के साथ मैं अतुल तेज सम्पन्न भगवान् विष्णु का व्रत एवं पूजन कर रहा हूँ।

राजा की बात सुनकर साधु ने आदरपूर्वक कहा – राजन् ! इस विषय में आप मुझे सब कुछ विस्तार से बतलाइये, आपके कथनानुसार मैं व्रत एवं पूजन करूँगा। मुझे भी सन्तति नहीं है। ‘इससे अवश्य ही सन्तति प्राप्त होगी।’ ऐसा विचार कर वह व्यापार से निवृत्त हो आनन्दपूर्वक अपने घर आया। उसने अपनी भार्या से सन्तति प्रदान करने वाले इस सत्यव्रत को विस्तार पूर्वक बताया तथा – ‘जब मुझे सन्तति प्राप्त होगी तब मैं इस व्रत को करूँगा’ – इस प्रकार उस साधु ने अपनी भार्या लीलावती से कहा।

एक दिन उसकी लीलावती नाम की सती-साध्वी भार्या पति के साथ आनन्द चित्त से ऋतुकालीन धर्माचरण में प्रवृत्त हुई और भगवान् श्रीसत्यनारायण की कृपा से उसकी वह भार्या गर्भिणी हुई। दसवें महीने में उससे कन्यारत्न की उत्पत्ति हुई और वह शुक्लपक्ष के चंद्रमा की भाँति दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी। उस कन्या का ‘कलावती’ यह नाम रखा गया। इसके बाद एक दिन लीलावती ने अपने स्वामी से मधुर वाणी में कहा – आप पूर्व में संकल्पित श्री सत्यनारायण के व्रत को क्यों नहीं कर रहे हैं?

साधु बोला – ‘प्रिये! इसके विवाह के समय व्रत करूंगा।’ इस प्रकार अपनी पत्नी को भली-भाँति आश्वस्त कर वह व्यापार करने के लिए नगर की ओर चला गया। इधर कन्या कलावती पिता के घर में बढ़ने लगी। तदनन्तर धर्मज्ञ साधु ने नगर में सखियों के साथ क्रीड़ा करती हुई अपनी कन्या को विवाह योग्य देखकर आपस में मन्त्रणा करके ‘कन्या विवाह के लिए श्रेष्ठ वर का अन्वेषण करो’ – ऐसा दूत से कहकर शीघ्र ही उसे भेज दिया। उसकी आज्ञा प्राप्त करके दूत कांचन नामक नगर में गया और वहां से एक वणिक का पुत्र लेकर आया। उस साधु ने उस वणिक के पुत्र को सुन्दर और गुणों से सम्पन्न देखकर अपनी जाति के लोगों तथा बन्धु-बान्धवों के साथ सन्तुष्ट चित्त हो विधि-विधान से वणिकपुत्र के हाथ में कन्या का दान कर दिया।

उस समय वह साधु बनिया दुर्भाग्यवश भगवान् का वह उत्तम व्रत भूल गया। पूर्व संकल्प के अनुसार विवाह के समय में व्रत न करने के कारण भगवान उस पर रुष्ट हो गये। कुछ समय के पश्चात अपने व्यापारकर्म में कुशल वह साधु बनिया काल की प्रेरणा से अपने दामाद के साथ व्यापार करने के लिए समुद्र के समीप स्थित रत्नसारपुर नामक सुन्दर नगर में गया और अपने श्रीसम्पन्न दामाद के साथ वहां व्यापार करने लगा। उसके बाद वे दोनो राजा चन्द्रकेतु के रमणीय उस नगर में गये। उसी समय भगवान् श्रीसत्यनारायण ने उसे भ्रष्टप्रतिज्ञ देखकर ‘इसे दारुण, कठिन और महान् दुख प्राप्त होगा’ – यह शाप दे दिया।

एक दिन एक चोर राजा चन्द्रकेतु के धन को चुराकर वहीं आया, जहां दोनों वणिक स्थित थे। वह अपने पीछे दौड़ते हुए दूतों को देखकर भयभीतचित्त से धन वहीं छोड़कर शीघ्र ही छिप गया। इसके बाद राजा के दूत वहाँ आ गये जहां वह साधु वणिक था। वहाँ राजा के धन को देखकर वे दूत उन दोनों वणिकपुत्रों को बाँधकर ले आये और हर्षपूर्वक दौड़ते हुए राजा से बोले – ‘प्रभो! हम दो चोर पकड़ लाए हैं, इन्हें देखकर आप आज्ञा दें’। राजा की आज्ञा से दोनों शीघ्र ही दृढ़तापूर्वक बाँधकर बिना विचार किये महान कारागार में डाल दिये गये। भगवान् सत्यदेव की माया से किसी ने उन दोनों की बात नहीं सुनी और राजा चन्द्रकेतु ने उन दोनों का धन भी ले लिया।

भगवान के शाप से वणिक के घर में उसकी भार्या भी अत्यन्त दुखित हो गयी और उनके घर में सारा-का-सारा जो धन था, वह चोर ने चुरा लिया। लीलावती शारीरिक तथा मानसिक पीड़ाओं से युक्त, भूख और प्यास से दुखी हो अन्न की चिन्ता से दर-दर भटकने लगी। कलावती कन्या भी भोजन के लिए इधर-उधर प्रतिदिन घूमने लगी। एक दिन भूख से पीडि़त कलावती एक के घर गयी। वहां जाकर उसने श्रीसत्यनारायण के व्रत-पूजन को देखा। वहां बैठकर उसने कथा सुनी और वरदान मांगा। उसके बाद प्रसाद ग्रहण करके वह कुछ रात होने पर घर गयी।

माता ने कलावती कन्या से प्रेमपूर्वक पूछा – पुत्री ! रात में तू कहाँ रुक गयी थी? तुम्हारे मन में क्या है? कलावती कन्या ने तुरन्त माता से कहा – माँ! मैंने एक घर में मनोरथ प्रदान करने वाला व्रत देखा है। कन्या की उस बात को सुनकर वह वणिक की भार्या व्रत करने को उद्यत हुई और प्रसन्न मन से उस साध्वी ने बन्धु-बान्धवों के साथ भगवान् श्रीसत्यनारायण का व्रत किया तथा इस प्रकार प्रार्थना की – ‘भगवन! आप हमारे पति एवं जामाता के अपराध को क्षमा करें। वे दोनों अपने घर शीघ्र आ जायें।’ इस व्रत से भगवान सत्यनारायण पुनः सन्तुष्ट हो गये तथा उन्होंने नृपश्रेष्ठ चन्द्रकेतु को स्वप्न दिखाया और स्वप्न में कहा – ‘नृपश्रेष्ठ! प्रातः काल दोनों वणिकों को छोड़ दो और वह सारा धन भी दे दो, जो तुमने उनसे इस समय ले लिया है, अन्यथा राज्य, धन एवं पुत्रसहित तुम्हारा सर्वनाश कर दूँगा।’

राजा से स्वप्न में ऐसा कहकर भगवान सत्यनारायण अन्तर्धान हो गये। इसके बाद प्रातः काल राजा ने अपने सभासदों के साथ सभा में बैठकर अपना स्वप्न लोगों को बताया और कहा – ‘दोनों बन्दी वणिकपुत्रों को शीघ्र ही मुक्त कर दो।’ राजा की ऐसी बात सुनकर वे राजपुरुष दोनों महाजनों को बन्धनमुक्त करके राजा के सामने लाकर विनयपूर्वक बोले – ‘महाराज! बेड़ी-बन्धन से मुक्त करके दोनों वणिक पुत्र लाये गये हैं। इसके बाद दोनों महाजन नृपश्रेष्ठ चन्द्रकेतु को प्रणाम करके अपने पूर्व-वृतान्त का स्मरण करते हुए भयविह्वन हो गये और कुछ बोल न सके।

राजा ने वणिक पुत्रों को देखकर आदरपूर्वक कहा -‘आप लोगों को प्रारब्धवश यह महान दुख प्राप्त हुआ है, इस समय अब कोई भय नहीं है।’, ऐसा कहकर उनकी बेड़ी खुलवाकर क्षौरकर्म आदि कराया। राजा ने वस्त्र, अलंकार देकर उन दोनों वणिकपुत्रों को सन्तुष्ट किया तथा सामने बुलाकर वाणी द्वारा अत्यधिक आनन्दित किया। पहले जो धन लिया था, उसे दूना करके दिया, उसके बाद राजा ने पुनः उनसे कहा – ‘साधो! अब आप अपने घर को जायें।’ राजा को प्रणाम करके ‘आप की कृपा से हम जा रहे हैं।’ – ऐसा कहकर उन दोनों महावैश्यों ने अपने घर की ओर प्रस्थान किया।

चौथा अध्याय

श्रीसूत जी बोले – साधु बनिया मंगलाचरण कर और ब्राह्मणों को धन देकर अपने नगर के लिए चल पड़ा। साधु के कुछ दूर जाने पर भगवान सत्यनारायण की उसकी सत्यता की परीक्षा के विषय में जिज्ञासा हुई – ‘साधो! तुम्हारी नाव में क्या भरा है?’ तब धन के मद में चूर दोनों महाजनों ने अवहेलनापूर्वक हँसते हुए कहा – ‘दण्डिन! क्यों पूछ रहे हो? क्या कुछ द्रव्य लेने की इच्छा है? हमारी नाव में तो लता और पत्ते आदि भरे हैं।’ ऐसी निष्ठुर वाणी सुनकर – ‘तुम्हारी बात सच हो जाय’ – ऐसा कहकर दण्डी संन्यासी को रूप धारण किये हुए भगवान कुछ दूर जाकर समुद्र के समीप बैठ गये।

दण्डी के चले जाने पर नित्यक्रिया करने के पश्चात उतराई हुई अर्थात जल में उपर की ओर उठी हुई नौका को देखकर साधु अत्यन्त आश्चर्य में पड़ गया और नाव में लता और पत्ते आदि देखकर मुर्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ा। सचेत होने पर वणिकपुत्र चिन्तित हो गया। तब उसके दामाद ने इस प्रकार कहा – ‘आप शोक क्यों करते हैं? दण्डी ने शाप दे दिया है, इस स्थिति में वे ही चाहें तो सब कुछ कर सकते हैं, इसमें संशय नहीं। अतः उन्हीं की शरण में हम चलें, वहीं मन की इच्छा पूर्ण होगी।’ दामाद की बात सुनकर वह साधु बनिया उनके पास गया और वहाँ दण्डी को देखकर उसने भक्तिपूर्वक उन्हें प्रणाम किया तथा आदरपूर्वक कहने लगा – आपके सम्मुख मैंने जो कुछ कहा है, असत्यभाषण रूप अपराध किया है, आप मेरे उस अपराध को क्षमा करें – ऐसा कहकर बारम्बार प्रणाम करके वह महान शोक से आकुल हो गया।

दण्डी ने उसे रोता हुआ देखकर कहा – ‘हे मूर्ख! रोओ मत, मेरी बात सुनो। मेरी पूजा से उदासीन होने के कारण तथा मेरी आज्ञा से ही तुमने बारम्बार दुख प्राप्त किया है।’ भगवान की ऐसी वाणी सुनकर वह उनकी स्तुति करने लगा।

साधु ने कहा – ‘हे प्रभो! यह आश्चर्य की बात है कि आपकी माया से मोहित होने के कारण ब्रह्मा आदि देवता भी आपके गुणों और रूपों को यथावत रूप से नहीं जान पाते, फिर मैं मूर्ख आपकी माया से मोहित होने के कारण कैसे जान सकता हूं! आप प्रसन्न हों। मैं अपनी धन-सम्पत्ति के अनुसार आपकी पूजा करूँगा। मैं आपकी शरण में आया हूं। मेरा जो नौका में स्थित पुरा धन था, उसकी तथा मेरी रक्षा करें।’ उस बनिया की भक्तियुक्त वाणी सुनकर भगवान जनार्दन संतुष्ट हो गये।

भगवान हरि उसे अभीष्ट वर प्रदान करके वहीं अन्तर्धान हो गये। उसके बाद वह साधु अपनी नौका में चढ़ा और उसे धन-धान्य से परिपूर्ण देखकर ‘भगवान सत्यदेव की कृपा से हमारा मनोरथ सफल हो गया’ – ऐसा कहकर स्वजनों के साथ उसने भगवान की विधिवत पूजा की। भगवान श्री सत्यनारायण की कृपा से वह आनन्द से परिपूर्ण हो गया और नाव को प्रयत्नपूर्वक संभालकर उसने अपने देश के लिए प्रस्थान किया। साधु बनिया ने अपने दामाद से कहा – ‘वह देखो मेरी रत्नपुरी नगरी दिखायी दे रही है’। इसके बाद उसने अपने धन के रक्षक दूत को अपने आगमन का समाचार देने के लिए अपनी नगरी में भेजा।

उसके बाद उस दूत ने नगर में जाकर साधु की भार्या को देख हाथ जोड़कर प्रणाम किया तथा उसके लिए अभीष्ट बात कही -‘सेठ जी अपने दामाद तथा बन्धुवर्गों के साथ बहुत सारे धन-धान्य से सम्पन्न होकर नगर के निकट पधार गये हैं।’ दूत के मुख से यह बात सुनकर वह महान आनन्द से विह्वल हो गयी और उस साध्वी ने श्री सत्यनारायण की पूजा करके अपनी पुत्री से कहा -‘मैं साधु के दर्शन के लिए जा रही हूं, तुम शीघ्र आओ।’ माता का ऐसा वचन सुनकर व्रत को समाप्त करके प्रसाद का परित्याग कर वह कलावती भी अपने पति का दर्शन करने के लिए चल पड़ी। इससे भगवान सत्यनारायण रुष्ट हो गये और उन्होंने उसके पति को तथा नौका को धन के साथ हरण करके जल में डुबो दिया।

इसके बाद कलावती कन्या अपने पति को न देख महान शोक से रुदन करती हुई पृथ्वी पर गिर पड़ी। नाव का अदर्शन तथा कन्या को अत्यन्त दुखी देख भयभीत मन से साधु बनिया से सोचा – यह क्या आश्चर्य हो गया? नाव का संचालन करने वाले भी सभी चिन्तित हो गये। तदनन्तर वह लीलावती भी कन्या को देखकर विह्वल हो गयी और अत्यन्त दुख से विलाप करती हुई अपने पति से इस प्रकार बोली -‘ अभी-अभी नौका के साथ वह कैसे अलक्षित हो गया, न जाने किस देवता की उपेक्षा से वह नौका हरण कर ली गयी अथवा श्रीसत्यनारायण का माहात्म्य कौन जान सकता है!’ ऐसा कहकर वह स्वजनों के साथ विलाप करने लगी और कलावती कन्या को गोद में लेकर रोने लगी।

कलावती कन्या भी अपने पति के नष्ट हो जाने पर दुखी हो गयी और पति की पादुका लेकर उनका अनुगमन करने के लिए उसने मन में निश्चय किया। कन्या के इस प्रकार के आचरण को देख भार्यासहित वह धर्मज्ञ साधु बनिया अत्यन्त शोक-संतप्त हो गया और सोचने लगा – या तो भगवान सत्यनारायण ने यह अपहरण किया है अथवा हम सभी भगवान सत्यदेव की माया से मोहित हो गये हैं। अपनी धन शक्ति के अनुसार मैं भगवान श्री सत्यनारायण की पूजा करूँगा। सभी को बुलाकर इस प्रकार कहकर उसने अपने मन की इच्छा प्रकट की और बारम्बार भगवान सत्यदेव को दण्डवत प्रणाम किया। इससे दीनों के परिपालक भगवान सत्यदेव प्रसन्न हो गये। भक्तवत्सल भगवान ने कृपापूर्वक कहा – ‘तुम्हारी कन्या प्रसाद छोड़कर अपने पति को देखने चली आयी है, निश्चय ही इसी कारण उसका पति अदृश्य हो गया है। यदि घर जाकर प्रसाद ग्रहण करके वह पुनः आये तो हे साधु बनिया तुम्हारी पुत्री पति को प्राप्त करेगी, इसमें संशय नहीं।

कन्या कलावती भी आकाशमण्डल से ऐसी वाणी सुनकर शीघ्र ही घर गयी और उसने प्रसाद ग्रहण किया। पुनः आकर स्वजनों तथा अपने पति को देखा। तब कलावती कन्या ने अपने पिता से कहा – ‘अब तो घर चलें, विलम्ब क्यों कर रहे हैं?’ कन्या की वह बात सुनकर वणिकपुत्र सन्तुष्ट हो गया और विधि-विधान से भगवान सत्यनारायण का पूजन करके धन तथा बन्धु-बान्धवों के साथ अपने घर गया। तदनन्तर पूर्णिमा तथा संक्रान्ति पर्वों पर भगवान सत्यनारायण का पूजन करते हुए इस लोक में सुख भोगकर अन्त में वह सत्यपुर बैकुण्ठलोक में चला गया।

पाँचवाँ अध्याय

श्रीसूत जी बोले – श्रेष्ठ मुनियों! अब इसके बाद मैं दूसरी कथा कहूँगा, आप लोग सुनें। अपनी प्रजा का पालन करने में तत्पर तुंगध्वज नामक एक राजा था। उसने सत्यदेव के प्रसाद का परित्याग करके दुख प्राप्त किया। एक बार वह वन में जाकर और वहां बहुत से पशुओं को मारकर वटवृक्ष के नीचे आया। वहां उसने देखा कि गोपगण बन्धु-बान्धवों के साथ संतुष्ट होकर भक्तिपूर्वक भगवान सत्यदेव की पूजा कर रहे हैं। राजा यह देखकर भी अहंकारवश न तो वहां गया और न ही उसने भगवान सत्यनारायण को प्रणाम ही किया। पूजन के बाद सभी गोपगण भगवान का प्रसाद राजा के समीप रखकर वहां से लौट आये और इच्छानुसार उन सभी ने भगवान का प्रसाद ग्रहण किया। इधर राजा को प्रसाद का परित्याग करने से बहुत दुख हुआ।

उसका सम्पूर्ण धन-धान्य एवं सभी सौ पुत्र नष्ट हो गये। राजा ने मन में यह निश्चय किया कि अवश्य ही भगवान सत्यनारायण ने हमारा नाश कर दिया है। इसलिए मुझे वहां जाना चाहिए जहां श्री सत्यनारायण का पूजन हो रहा था। ऐसा मन में निश्चय करके वह राजा गोपगणों के समीप गया और उसने गोपगणों के साथ भक्ति-श्रद्धा से युक्त होकर विधिपूर्वक भगवान सत्यदेव की पूजा की। भगवान सत्यदेव की कृपा से वह पुनः धन और पुत्रों से सम्पन्न हो गया तथा इस लोक में सभी सुखों का उपभोग कर अन्त में सत्यपुर वैकुण्ठलोक को प्राप्त हुआ।

श्रीसूत जी कहते हैं – जो व्यक्ति इस परम दुर्लभ श्री सत्यनारायण के व्रत को करता है और पुण्यमयी तथा फलप्रदायिनी भगवान की कथा को भक्तियुक्त होकर सुनता है, उसे भगवान सत्यनारायण की कृपा से धन-धान्य आदि की प्राप्ति होती है। दरिद्र धनवान हो जाता है, बन्धन में पड़ा हुआ बन्धन से मुक्त हो जाता है, डरा हुआ व्यक्ति भय मुक्त हो जाता है – यह सत्य बात है, इसमें संशय नहीं। इस लोक में वह सभी ईप्सित फलों का भोग प्राप्त करके अन्त में सत्यपुर वैकुण्ठलोक को जाता है। इस प्रकार मैंने आप लोगों से भगवान सत्यनारायण के व्रत को कहा, जिसे करके मनुष्य सभी दुखों से मुक्त हो जाता है।

कलियुग में तो भगवान सत्यदेव की पूजा विशेष फल प्रदान करने वाली है। भगवान विष्णु को ही कुछ लोग काल, कुछ लोग सत्य, कोई ईश और कोई सत्यदेव तथा दूसरे लोग सत्यनारायण नाम से कहेंगे। अनेक रूप धारण करके भगवान सत्यनारायण सभी का मनोरथ सिद्ध करते हैं। कलियुग में सनातन भगवान विष्णु ही सत्यव्रत रूप धारण करके सभी का मनोरथ पूर्ण करने वाले होंगे। हे श्रेष्ठ मुनियों! जो व्यक्ति नित्य भगवान सत्यनारायण की इस व्रत-कथा को पढ़ता है, सुनता है, भगवान सत्यारायण की कृपा से उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। हे मुनीश्वरों! पूर्वकाल में जिन लोगों ने भगवान सत्यनारायण का व्रत किया था, उसके अगले जन्म का वृतान्त कहता हूं, आप लोग सुनें।

महान प्रज्ञासम्पन्न सत्यनारायण व्रत करने के प्रभाव से दूसरे जन्म में सुदामा हुए और उस जन्म में भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। लकड़हारा भिल्ल गुहों का राजा हुआ और अगले जन्म में उसने भगवान श्रीराम की सेवा करके मोक्ष प्राप्त किया। महाराज उल्कामुख दूसरे जन्म में राजा दशरथ हुए, जिन्होंने श्रीरंगनाथजी की पूजा करके अन्त में वैकुण्ठ प्राप्त किया। इसी प्रकार धार्मिक और सत्यव्रती साधु पिछले जन्म के सत्यव्रत के प्रभाव से दूसरे जन्म में मोरध्वज नामक राजा हुआ। उसने आरे से चीरकर अपने पुत्र की आधी देह भगवान विष्णु को अर्पित कर के मोक्ष प्राप्त किया। महाराजा तुंगध्वज जन्मान्तर में स्वायम्भुव मनु हुए और भगवत्सम्बन्धी सम्पूर्ण कार्यों का अनुष्ठान करके वैकुण्ठलोक को प्राप्त हुए। जो गोपगण थे, वे सब जन्मान्तर में व्रजमण्डल में निवास करने वाले गोप हुए और सभी राक्षसों का संहार करके उन्होंने भी भगवान का शाश्वत धाम गोलोक प्राप्त किया।

SATYANARAYAN BHAGWAN KI KAHANI IN HINDI
SATYANARAYAN BHAGWAN KI KAHANI IN HINDI

इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराण के अन्तर्गत रेवाखण्ड में श्रीसत्यनारायणव्रत कथा का यह पाँचवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।

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